मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

कभी कबीरा दीवाना था कभी मीरा दीवानी है

कोई दीवाना कहता है,कोई पागल समझता है
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है
में तुझसे दूर कैसा हूँ, तू मुझसे दूर कैसी है
ये तेरा दिल समझता है, या मेरा दिल समझता है

मुहब्बत एक एहसासो की पावन सी कहानी है
कभी कबीरा दीवाना था, कभी मीरा दीवानी है
यहाँ सब लोग कहते हैं मेरी आँखों में आँसू हैं
जो तू समझे तो मोती है, ना समझे तो पानी है

समंदर प्‍यार का अंदर है लेकिन रो नहीं सकता
ये आँसू प्यार का मोती है इसको खो नहीं सकता
मेरी चाहत को अपना तू बना लेना मगर सुन ले
जो मेरा हो नहीं पाया वो तेरा हो नहीं सकता

की भँवरा कोई कुमुदनी पर मचल बैठा तो हंगामा
हमारे दिल में कोई ख्वाब पल बैठा तो हंगामा
अभी तक डूब कर सुनते थे सब किस्सा मुहब्बत का
में किस्से को हक़ीकत में बदल बैठा तो हंगामा

रविवार, 17 जनवरी 2010

2009 की कुछ सुर्खियों

एक सरकारी रिपोर्ट कहती है कि भारत में ग़रीबी बढ़ी है और अब हर तीसरा भारतीय दरिद्र है.

• मुंबई मेट्रोपोलिटन रिजनल डवलपमेंट अथॉरिटी के आयुक्त रत्नाकर गायकवाड का कहना है कि मुंबई में 54 प्रतिशत आबादी झुग्गियों में रहती है. लेकिन वे यातायात को सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं.

• भारत के गृहमंत्री ने कहा है कि नक्सली अब देश के 20 राज्यों के 223 ज़िलों में फैल गए हैं.

• झारखंड में मुख्यमंत्री रहे मधु कोड़ा के ठिकानों पर छापों के बाद चार हज़ार करोड़ रुपयों से अधिक की संपत्ति का पता लगा.

• आंध्र प्रदेश के राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी को एक सेक्स वीडियो के विवाद के बाद इस्तीफ़ा देना पड़ा है. हालांकि वे अपने आपको निर्दोष बता रहे हैं.

• एक अवयस्क बालिका रुचिका के साथ छेड़छाड़ और आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले पुलिस अधिकारी को 19 साल बाद सिर्फ़ छह महीने की सज़ा सुनाई गई है.

• पुराने रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव रेलवे की रिकॉर्ड कमाई की वजह से मैनेजमेंट गुरु बन गए थे. नई रेलमंत्री ममता बैनर्जी कह रही हैं कि लालू प्रसाद यादव ग़लत आंकड़े दे रहे थे.

• साल भर में औसतन एक हज़ार फ़िल्म बनाने वाले भारतीय बाज़ार में अच्छी कही जाने लायक फ़िल्मों की संख्या दहाई तक भी नहीं पहुँच पाई है.

• साल भर पहले 40 रुपए किलो बिकने वाली अरहर दाल इन दिनों 110 रुपए किलो बिक रही है.


सपने मर जाये तो अच्छा है

कवि पाश ने कहा था, 'सबसे ख़तरनाक होता है सपनों का मर जाना...'

एक बच्चा उड़ीसा के जंगलों में मिला था. 11-12 साल का. उसने बताया कि उसका पिता किसान है. और उत्सुकतावश पूछा कि किसान यानी? तो उसने मासूमियत से कहा, ग़रीब आदमी. वह बच्चा नक्सलियों के साथ रहता और घूमता फिरता है. एके-47 से लेकर पिस्टल तक सब कुछ चलाता है. वह बड़ा होकर नक्सली बनना चाहता है. उसका कहना है कि अपने लोगों का भला ऐसे ही हो सकता है.

एक बच्चा बलिया में मिला. पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के गुज़र जाने के बाद, उनके बंगले की रखवाली करता हुआ. वह दस साल का रहा होगा. पान मसाला खाते हुए वह बताता है कि एक दिन वह अपने बड़े भाई के दुश्मनों को चाकू मारना चाहता है और कट्टा हासिल करके वह अपने नेताजी के लिए काम करना चाहता है. इस काम में उसे रुतबा दिखाई देता है.

एक बच्ची मुज़फ़्फ़रपुर के रेडलाइट एरिया में मिली. उम्र बमुश्किल आठ साल. यह जानने के बाद कि मैं दिल्ली में रहता हूँ, उसने उत्सुकता के साथ कहा कि एक दिन वह मुंबई जाना चाहती है. करना वही चाहती है, जो उसकी माँ मुज़फ़्फ़रपुर में करती है. वह कहती है कि इस काम में उसे कोई बुराई नहीं दिखती, लेकिन यह शहर ख़राब है.

एक बच्चा दिल्ली के बड़े स्कूल में पढ़ता है. आठवीं कक्षा में. डिस्कवरी चैनल पर 'फ़्यूचर वेपन' यानी भविष्य के हथियार कार्यक्रम को चाव से देखता है. वह एक दिन सबसे ज़्यादा तेज़ी से गोली चलाने वाले बंदूक का आविष्कार करना चाहता है. उसका तर्क है कि गोलियों से आख़िर बुरे लोग ही तो मारे जाते हैं.

पाश की कविता अक्सर लोगों को रोमांचित करती है. लेकिन इन बच्चों के सपने सुनकर तो रूह काँप जाती है.

क्या इन सपनों को भी ज़िन्दा रखा जाए?

शुक्रवार, 15 जनवरी 2010

आज भी मत जगाओ

आपने चीजों को बिकते हुए देखा होगा खुले बाजारों में।
शायद ही कभी देखा हो जिस्म को बिकते हुए हवस के गलियारों में।।
अँधेरी सियाह रातो में गली के आखरी छोर पर।
एक जिस्म जुम्बिश लेता है चन्द सिक्को के जोर पर॥
अहसास है ही नहीं आपको, गरीबी और भूख कैसे सताती है
किसी की बेटी, बहन किसी की और माँ भी बिक जाती है।
और जो ना चाहे उसको भी बेच दिया जाता है।
हिस्सा थाने का हो तो कानून कब आड़े आता है॥
भूख, गरीबी और मुफलिसी दिखती नहीं काले शीशो से।
किसको फुर्सत है बाहर आये सरकारी गलीचों से॥
कानून काम न करे तो अदालत जाओ।
सालो से सोये है हम आज भी मत जगाओ॥
आंख खुल जाएगी, रो दोगे, मरते नज़र आओगे।
किसी रोज़ जो खरीद में बेटी को सामान पाओगे॥
(इमरान अली)

मंगलवार, 5 जनवरी 2010

घर की आबरू रख ली

हर चेहरे पर ग़म की ख़ुशी है।
गाँव में फिर एक किसान ने ख़ुदकुशी की है।
खेत उसका तो यू छोटा सा था।
पेट भरने में लेकिन कोई टोटा न था।
ट्रेक्टर, बैल और हल था ना उस के पास।
बच्चे बैल बनते और बीवी भी देती थी साथ।
पसीने से सींच कर फसल उगा लेता था वो।
मेहनत के भरोसे चार पैसे कम लेता था वो।
लेकिन दो साल से बारिश नहीं होई।
चुनाव थे न पास, सो सरकार सोई रही।
क़र्ज़ पर क़र्ज़, उस पर बढ़ता गया।
जिस्म और हड्डियों का वज़न घटाता गया।
चूका दो ब्याज नहीं तो, बेटी तुम्हारी बेच देंगे।
गुंडे लाला के, बीवी की इज्ज़त भी छेद देंगे।
सोच कर ये सब, उस ने अपनी हत्या करली।
मर गया तो क्या, घर की आबरू तो सलामत रखली।
(इमरान अली)

सोमवार, 4 जनवरी 2010

आज़ादी पुकार दूँ

अच्छा हुआ के ये राज़, तुम पर भी खुल गया

हुकूमते चलती है कैसे, मालूम ये चल गया

अब बदल लो सच कहने सुनने की आदत

तुम नहीं जानते हुकूमते हिंद की ताकत

नक्सली, माओ, या मुस्लमान हो जाओगे

छुपे होए सच को जो जुबा पर लाओगेll

लेकिन मैं हिम्मत से लड़ने को तैयार हूँ

तुम साथ दो मेरा तो आज़ादी पुकार दूँll

(इमरान अली)

संविधान बेकार

घटते खेत, बढ़ता धुआं।
भूखा किसान, सुखा कुआँ॥
न्याय में देरी, महंगी चंगेरी।
मुनसिफी बहरी, सोते प्रहरी॥
अय्याश सरकार, नौजवान बेगार।
पुलिसिया अत्याचार, इन्सान लाचार॥
क्रिकेट में जीत, ज़िन्दगी में हार।
राष्टियता आगे, संविधान बेकार॥
(इमरान अली)

रविवार, 3 जनवरी 2010

शाबाश पुलिस, लाजवाब पुलिस, बेपरवाह पुलिस, बेजवाब पुलिस

कल का दिन हिंदुस्तान की पुलिस के लिए शर्मिंदगी भरा रहा। वैसे तो रोज़ ही हमे अपनी पुलिस के काम करने के तरीके पर शर्म आती ही हे। लेकिन कल के दिन पुलिस को ले कर चार बड़ी खबरे रही। एक- तीन पाकिस्तानी आतंकवादी गुप्तचर ब्यूरो के एक इंस्पेक्टर को बेवकूफ बनाकर फरार हो गए। दो- छोटा राजन के गुर्गे की क्रिसमस पार्टी में मेहमान बनने की वजह से मुंबई पुलिस के पांच पुलिसवाले सस्पेंड हो गए। तीन-नॉएडा पुलिस ने एक नामी बदमाश को एन्कोउन्टर में मार गिराया जबकि उस का एक साथी भागने में कामयाब रहा। चार- पश्चिमी मिदनापुर में पुलिस वालो ने तीन लोगो को गोली मर दी, तीनो की मौत हो गई। इनमे से तीन खबरे तो राष्टीय मीडिया में खूब रही। एक दो जगह मिदनापुर की खबर भी थी। मै चारो घटनाओ पर विचार करना चाहता हु।
सबसे पहले तीन आतंकवादियो के फरार होने की खबर लेते ही। कमाल की बात हे के वो आतंकवादी फरार हो गए जिनको एक दो हफ्ते में छोड़ा जाना था। तीनो लाल किला बम्ब धमाके में पांच साल की सजा पूरी कर चुके थे। तीनो को जल्दी ही पाकिस्तान को सौपा जाना था। पर इस से भी कमाल की बात ये हे के गुप्तचर ब्यूरो का जो इंस्पेक्टर उन तीनो को ले कर अस्पताल गया था उसने देर रात तक न तो ये बात अपने बड़े अफसरों को बताई न ही पुलिस को खबर की। किसी तरह मीडिया को इस बात की खबर लगी तो हंगामा होना शुरू हुआ। दिल्ली पुलिस ने तो फ़ौरन हाथ पीछे खीच लिया। और टीवी वालो को खबर मिल गई "दिल्ली वालो सावधान आज रात आप को अपना निशाना बना सकते ही तीन आतंकवादी।" लेकिन मेरा विचार थोडा अलग ही। मै अभी तक ये नहीं समझ पाया के आखिर वो तीन लोग जिन को आज़ादी मिलने ही वाली ही भला क्यों भाग गए। इसके मुझे तीन कारन समझ आते हे। एक- चूँकि उनकी सजा पूरी हो चुकी थे और उनको पाकिस्तान भेजा जाने वाला था और शायद वो अपने घर वापिस नहीं जाना चाहते होंगे। लेकिन इसकी संभावना कम ही हे क्यों की उन्होंने तो बम्ब फोड़ ही दिया था और वो तो पाकिस्तान के लिए हीरो थे। और हीरो अपने देश न जाना चाहे ऐसा कभी हुआ नहीं। दो- हो सकता हे के वो अस्पताल लाये ही न गए हो और पहले ही किसी फर्जी एन्कोउन्टर मै मर दिए गए हो। शायद अब जब उन की सजा पूरी हो गयी हो तो उनके पाकिस्तानी रिश्तेदार उन्हें लेने को तैयार हो। और मरे को जिंदा करना तो किसी के बाद की बात नहीं तो उनको फरार दिखा दो। भाग गए तो लाये कहा से। तीन- चुकी २६ जनवरी आ रही है तो राष्ट सुरक्षा के नाम पर उनका जल्दी कही एनकाउंटर कर दिया जाए। और फिर लोगो को समझे देर नहीं लगेगी के पाकिस्तान आतंकवाद को अभी भी बढ़ावा दे रहा है। बढ़ते आतंकवाद से पुलिस और गुप्तचर एजंसी को और ज्यादा महत्त्व और फंड मिलेगा। बहादुर एनकाउंटर के बदले शायद राष्ट्रीय पुरस्कार। और अगर मै बिलकुल गलत हु तो ये बहुत शर्मिंदगी की बात है के कोई गुप्तचर ब्यूरो को चकमा दे कर निकल जाये। अगर ऐसा है शायद हम गलत लोगो पर भरोसा कर रहे है। दूसरी बात जो मुझे समझ नहीं आरही वो ये के जब किसी को भी सजा हो जाती है तो वो जेल मै रहता है तो कैसे ये तीन आतंकवादी गुप्तचर ब्यूरो के पास थे। शायद जल्दी हमें इस का जवाब मिलेगा। मुझे उम्मीद है।
अब दूसरी खबर के खबर लेते है। एक उपपुलिस अधीक्षक, एक सहायक पुलिस अधीक्षक, एक सीनिअर इन्स्पेक्टर, एक इन्स्पेक्टर और एक हवालदार किसी कैमरे नाचते गाते कैद हो गए। नाचना गाना वो भी क्रिसमस की पार्टी मै मुझे नहीं लगता को बुरी बात है ना ही कैमरे मे कैद होना। लेकिन हुआ ये के ये पार्टी छोटा राजन के किसी गुर्गे ने दी थे। पर छोटा राजन तो हिन्दुस्तानी है और राष्ट भक्त भी क्यों की उसने तो दवूद इब्राहीम से पंगा ले रखा है। श्रीमान इब्राहीम पूरी दुनिया मे अगर किसी से डरते है तो छोटा राजन से। तो मै ये नहीं समझ पर रहा के इन पुलिसवालों ने ऐसा क्या गुनाह किया के एक राष्ट भक्त की पार्टी मै शामिल होने नाचने गाने की वजह से आप को सस्पेंड कर दिया जाये। मुझे लगता है की बीजेपी को इस को मुद्दा बनान चाहिए। लेकिन इस खबर का एक दूसरा पहलु भी है। साफ़ दिखता हे गुंडे और वर्दीवाले गुंडे का याराना। ये याराना हम नहीं छोड़ेगे।
तीसरी खबर नॉएडा से है। पुलिस ने नामी बदमाश सलीम को मार गिराया लेकिन अफ़सोस उसपुरे एक साथी भागने मै कामयाब रहा। और कमाल ये की एक AK-47 जो उस के पास थी उसने उस से पुलिस पर फायर करना उचित नहीं समझा। बेचारा पुलिस की इज्ज़त के रखवाली करता मर गया। मै जो नहीं समझ पाया वो ये के कैसे हमेशा पुलिस बदमाश को आसानी से मर लेती है और बदमाश अपनी बदूक भी इस्तेमाल नहीं कर पता। हमेशा एनकाउंटर सुबह सवेरे ही को होते है। बदमाश शायद सुबह जल्दी उठ कर योग करते होंगे या फिर बेचारे जोगिंग करते होंगे। दिन के उजाले मै कैसे एक मारा जाता है और एक भाग भी जाता है। और एक और कमाल है बदमाश को हमेशा अपनी जान से ज्यादा अपनी गाड़ी की फिकर रहती है। गाड़ी पर कोई निशान नहीं। बढ़िया है झूट ही सही पर ग़ालिब दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है। एक बदमाश तो कम हुआ।
चौथा मामला ज़रा गंभीर है। पुलिस ने पश्चिमी मिदनापुर मे तीन लोगो को गोली मार दी। पुलिस का कहना है के वो नक्सली थे। और लोगो का कहना है के वो शांतिपूर्वक एक जल्लुस निकाल रहे थे। मैं उस पुरे इलाके को अच्छी तरह जनता हु। मै गया था लालगढ़, वो जगह जहा नक्सलियो ने कब्ज़ा कर लिया था। पर मैने जो देखा वो बिलकुल अलग था उस से जो हमारे अख़बार और टीवी वाले दिखा रहे थे। सारे स्कूल बंद थे स्कूल मै पढने वाले बच्चो की जगह पुलिस रहती थी। हमारी कलकत्ता यूनिट ने एक PIL करा कर स्कूल खाली करवाए है। लालगढ़ मिदनापुर का एक छोटा सा क़स्बा है। सीधे सादे आदिवासी लोग, कच्चे घर, दो चार सरकारी दफ्तर और एक अकेली सड़क पर मै यहाँ ये बताना ज़रूरी समझता हु के लालगढ़ की घटना क्यों होई। हुआ ये के बंगाल की सरकार इन आदिवासियो की ज़मीन जिंदल को फेक्टरी लगाने के लिए देना चाहती थे। जब इन लोगो ने इस का विरोध किया तो सरकार ने लोगो को नक्सली बताना शुरू कर दिया और जब बंगाल के मुख्यमंत्री जिंदल के कारखाने का शिलानियास करके वापिस रहे थे तो वह एक माइन ब्लास्ट हुआ। पुलिसने लालगढ़ जा कर लोगो को घरो से निकल कर मारा और औरतो के साथ बत्तमीजी की। आदिवासियो ने मांग की के पुलिस के जिन लोगो ने उनकी औरतो से बुरा बर्ताव किया ही वो यहाँ कर माफ़ी मांगे। पुलिस भला कब माफ़ी मांग सकती है। तो ये आदिवासी नक्सली हो गए। पूरा लालगढ़ आज भी पुलिस और पुलिस के अतियाचार का शिकार हैअगर ये सब जारी रहा तो सचमुच लोग नक्सली बनने पर मजबूर हो जायेगे और हमेशा की तरह पुलिस ही इस की ज़िम्मेदार होगी, पर ज़िम्मेदारी लेगी नहीं। क्यों की ज़िम्मेदारी लेना उस का काम नहीं, पुलिस का काम है कानून के नाम पर अपनी रोटी सेकना और आप को सताना। कब जागेगे हम और कब कहेगे हमे ये पुलिस नहीं चाहिए। ६२ सालो में मैं, आप और सब बेशर्म हो गए ही। जब तक हम नहीं सताए जायेगे। हम नहीं बोलेगे। लेकिन बोलना तो पड़ेगा ही क्यों की अगला नंबर आप का ही तो है

शनिवार, 2 जनवरी 2010

बस एक शुरुआत ....

जब से लिखना सीखा बस लिखने का सोचता रहा, लिखा कुछ भी नहीं। कुछ लोग है जो कहते है के मै शायद अच्छा लिखा सकता हु बस कोशिश कर रहा हु पता नहीं हो पाएगा या नहीं। हो गया तो कोशिश सफल हो जायेगी, नहीं हुआ तो फिर से कोशिश करूँगा। लिखने को बहुत कुछ है मेरे पास। कलम से न सही कीबोर्ड से उंगलियो की मुलाकात हो चुकी है। कुछ तो निकलेगा।
जब मै छोटा था तो मेरे नाना जिंदा थे वो एक स्वतंत्र सेनानी थे पर मेरी नानी हमेशा कहती थे के जब अँगरेज़ हिंदुस्तान पर राज करते थे तो ज़िन्दगी बहुत अच्छी थे मै कभी समझ नहीं पाया। हमेशा सोचता था के शायद नानी को नाना से प्यार नहीं है इसलिए शायद ये कहती है कुछ बड़ा हुआ तो दुसरे बच्चो की तरह स्कूल मै पड़ने गया लेकिन अब ज़िदगी के कम से कम २५ साल गुजरने के बाद पता चला के जिस सिस्टम से हम को पढाया जा रहा है वो तो अंगरेजों ने बनाया है। आप को जान के शायद हैरानी हो के लोर्ड मेकाले ने हमारे बारे मै २ फरवरी 1835 को ब्रिटेन के संसद मे क्या कहा पदिये "मैं भारत की लंबाई और चौड़ाई भर में यात्रा की है और मैंने एक भी व्यक्ति जो भिखारी है, जो चोर है नहीं देखा है। ऐसा धन मैंने इस देश में देखा है, ऐसे ऊंचे नैतिक मूल्यों, ऐसे लोगों की बुद्धि का विस्तार, कि मुझे नहीं लगता कि हम कभी भी इस देश को जीत पायेगे। जब तक हम इस देश की रीढ़ की हड्डी तोड़े जो है उसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत। इसलिए है, मेरा प्रस्ताव है कि हम पुरानी और प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली को अपनी शिक्षा से बदल दे। अगर भारतीयों को लगता है कि यह सब विदेशी और अंग्रेजी अच्छी है और उनकी संस्कृति से बड़ी है तो वे खो देंगे अपने आत्म सम्मान, मूल संस्कृति को और वे बन जाएगा जो हम उन्हें चाहते हैं, वास्तव में एक गुलाम राष्ट्र।" कितना सही और समझदार व्यक्ति था लोर्ड मेकाले और हम कितने नासमझ आज भी। हम स्कूल जाते है इसलिए के हम बड़े होकर इंजिनियर बने, डॉक्टर बने, कलेक्टर बने और पता नहीं क्या क्या नहीं बनते तो इन्सान। ६२ सालो से हम शायद ये भी नहीं समझ पाए के हम आजाद नहीं हो पाए अभी। वही पुरानी शिक्षाये हमे आज की सर्कार का गुलाम बना देती है। हम खुश है के नौकरी मिल गयी, घर बार और रिश्तेदर बस पूरी ज़िन्दगी निकल देते है लोगो की मर्ज़ी से जीने मे। पर मे शायद ये नहीं कर पर रहा हो। मेरे अब्बा परेशां है के मे कब तक अपनी ज़िन्दगी के साथ प्रयोग करता रहूँगा। कभी पत्रकार, कभी अध्यापक, कभी वकील, कभी मानव अधिकार कार्यकर्त्ता, और ना जाने क्या क्या। काश वो समझ सकते के मै इन्सान बनना चाहता हु। लकिन बहुत मुश्किल है इन्सान होना। हम और हमारा देश मर रहा है और हमें पता भी नहीं। क्यों की शायद हम ही मर गए है। मेरी नानी बिलकुल ठीक है। अँगरेज़ ही अच्छे है कम से कम जब ज़ुल्म हो तो सोच लोअपने नहीं है ज़ुल्म करने वाले। और वैसे भी क्या बदला सिवाए खाल के रंग के और जुबान के और सोचने के. हम और हमारी सरकार आज भी गरीब और इन्सान की दुश्मन है। घूम कर देखो हिंदुस्तान के लम्बाई और मे चौड़ाई मे सिवाए भिखारी, चोर, और गरीब हिंदुस्तान के कुछ नहीं मिलेगा। संस्कृति और विरासत तो अँगरेज़ ले गए १९४७ मे।